घर के दोमंजिले में एक काठ की अलमारी हुआ करती थी....
जिसे अक्सर बंद देखा करता था..
कभी खुलती तो कपूर की खुसबू उससे आया करती....
जिसकी मालकिन अम्मा हुआ करती थी.
उसके मंगलसूत्र के बीचो बीच
एक चाबी नुमा लॉकेट हुआ करता था...
हाँ उस अलमारी का रिमोट था वो....
कभी फॉरवर्ड तो कभी रिवर्स...
कभी उसके बटन से बताशा निकलता
तो कभी गुड़ का एक टुकड़ा...
त्यौहार आता तो पंच मेवा
नहीं तो मडुवे की रोटी का एक टुकड़ा....
हमारे लिए किसी बैंक के लाकर से कम न थी वो अलमारी..
जिसका पासवर्ड सिर्फ अम्मा के कब्जे में था...
ना पासवर्ड ना डुप्लीकेट चाभी.
फिर भी सिक्योरिटी फूलप्रूफ....
ना हैरिसन ना चाइनीज़
एक लोहे का ताला अक्सर लटका करता....
जो सिर्फ और सिर्फ अम्मा के पासवर्ड से खुलता
कई बार उसको हैक करने की कोशिश करि....
लेकिन सफलता ना मिली...
मुददतों में कभी खुलती तो
नाना अपना कांच का गिलास लेकर उसके करीब पहुँचते
दूसरे खाने के कोने में रखी एक बोतल निकालते...
हमें बस बड़े अक्षरों में नेपोलियन पढ़ने में आता...
गिलास के एक तिहाई में उस बोतल का द्रव्य उडेल दिया करते थे...
बातें तो अच्छी करते थे....
तब भी उस काठ की अलमारी के पासवर्ड को तरसते थे.....
अम्मा आर बी आई के गवर्नर से खुद को काम ना आंकती थी
भले ही उसके नोटों पर साइन ना हों....
पर घर की तिजोरी तो उसके ही इशारों पर खुलती थी
हाँ घर के दोमंजिले में एक काठ की अलमारी हुआ करती थी....