हाँ, मैं समझ सकता हूँ कि आप सभी के दिमाग में यह सवाल कौंध रहा है कि हम मिले कैसे....... हमारी मुलाकात इस कंप्यूटर युग में इन्टरनेट के जरिये हुई......... आज इंसान के पास समय नहीं है अपनों से मिलने का लेकिन इस कमी को पूरा किया है मनुष्य जाती कि इस बड़ी खोज ने.......... आप भी सोच रहे होंगे कि मैं भटक गया हूँ......... नहीं !! ऐसा बिलकुल भी नहीं है, चलिए आगे बदें..........
मैं अपने किसी जरूरी कार्य में मशगूल था और तभी मेरे चालित दूरभाष यन्त्र में कम्पन हुई, देखा तो वह निशी का कॉल था............ वो मेरा पिछले आधे घंटे से इंतज़ार कर रही थी........ सुनने में थोडा अटपटा सा लगता है न कि एक महिला मित्र को इंतज़ार करना पड़ रहा था और में अपना काम निपटने में लगा हूँ.......... अपने स्कूली दिनों कि याद आ रही थी, उस वक़्त अगर किसी बाला से मिलना होता था तो में एक घंटा पहले ही से उसका इंतज़ार करने लगता था और आज एक महिला मित्र मेरा इंतज़ार कर रही थी............ मैंने अपना सारा काम छोड़ा और काफी शाप के लिए निकं पड़ा, चूँकि दूरी अधिक नहीं थी में कुछ क्षणों में ही वहां पहुँच गया.......
दिल में धड़कन और आँखों में चमक लिए मेरे कदम जीने से ऊपर कि ओर बड़ने लगे और ऊपर पहुँच के जो शहर का विहंगम दृश्य देखा वो मैंने कभी न देखा था.............कितना सुकून था वहां...... और इन सब के बीच एक खूबसूरत लेकिन साधारण सा चेहरा अपने चक्षुओं में मुश्कान बिखेरे मेरे करीब आया और मुझे अपने आलिंगन में ले लिया............ क्षण भर के लिए भी यह प्रतीत नहीं हुआ कि हम पहली बार मिल रहे हैं.............अन्दर ज्यादातर लोगों के चेहरे हमें ऐसे घूर रहे थे मानो हम इंसान नहीं कोई अजूबे हों, कुछ असहज जरूर महसूस कर रहे थे हम लेकिन थोड़ी देर में सब सामान्य हो गया.......... हम दोनों में एक और असमानता थी, वो अपने दिल की सुनती थी लेकिन वक़्त पड़ने पर अपने मस्तिष्क का भी इस्तेमाल करती थी और में उसके एकदम विपरीत सिर्फ और सिर्फ अपने दिल की ही सुनता और करता हूँ......... आप सोच रहे होंगे मैंने कहा 'दो असमानताएं थी' लेकिन पहली का जिक्र तो कहीं हुआ ही नहीं, अरे साब अपने मगज पे इतना जोर ना दें, पहली असमानता तो जग जाहिर है; मैं पुरुष और वो महिला ............
हमारी बातें ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी, मनो फिर दुबारा मुलाकात हो ही नहीं……… उस में कोई छल नहीं था, दिल साफ़ और दूरियों का सही अंदाजा था उसे ……… प्यार एक ऐसा विषय था जिसमे वो मुझ से बिलकुल भी इत्तेफाक नहीं रखती थी…...
मेरा मानना है की आपको अपनी जिंदगी में प्यार किसी से भी किसी भी उम्र में और कभी भी हो सकता है…………… हाँ हो सकता है लेकिन किया नहीं जा सकता है………. मेरा मानना है की आप को एक ही व्यक्ति से प्यार हो जरूरी नहीं ……….. लेकिन उसका कहना था ऐसा संभव नहीं है………. आप अपने प्यार को टुकडो में बाँट नहीं सकते……… में निशी की सोच को गलत नहीं कहूँगा…….. वो अपने नजरिये से सोचती है ……… हर कोई अपने नजरिये से सोचता है………..
हाँ अगर प्यार को हम काम से जोड़ दे तो इसकी परिभाषा ही बदल जाएगी…….. प्यार तो एक अनुभूति है, काम वासना से बहुत दूर………….. प्यार सिर्फ एक पुरुष और महिला के दर्मिया ही नहीं देखा जा सकता है…….. प्यार किसी वस्तु, किसी जानवर से भी हो सकता है…….. चलिए यह तो एक लम्बी बहस का मुद्दा है, देखें काफी शॉप के भीतर क्या चल रहा है……..
जिस स्थान पे हम बैठे थे वहां से बहार का नजारा देखने लायक था, तभी बाहर देखते हुए निशी बोली “काश अभी बारिस हो जाती”………… यकीन मानिये मानो इन्द्र देव ने सुन लिया हो……….. बहार झमा झम वर्षा होने लगी……….. मन कर रहा था फिर से बच्चे बन जायें और पानी से खेलें भीगें और नाचें………… लेकिन आज यह सब करने में शायद हमें पागल कहा जाता………… हमारी काफी खत्म हो चुकी थी और जाने का मन अभी न था तो एक एक और माँगा ली………. इस सब के बीच हमें एक चीज बार बार खटक रही थी……….. येही की हम कुछ गलत नहीं कर रहे एक मित्र दुसरे मित्र के साथ बैठा है……… लेकिन ये बात हम अपने सबसे करीबी सखा , अपने जीवन साथी को क्यूँ नहीं बता सकते………. क्यूँ न एक दुसरे को मिला सकें……. क्या ये गलत है की मैं पुरुष और वो एक महिला है……….. अनेक सवाल कौंध रहे थे हमारे भीतर……. निशी ने अपनी चुप्पी तोड़ी और कहा , ये बात उन्हें तब तक बुरी लगे शायद जब तक उन्हें भी कोई हमारे जैसा मित्र न मिल जाये, लेकिन तब तक उनका इस बात को न चाहना लाजमी है………. मुझे भी लगा की शायद कुछ बातों को समझाया नहीं जा सकता है……….. सिर्फ समझा जा सकता है………
बातों बातों में पता ही नहीं चला कि कब तीन घंटे व्यतीत हो गए…….. दिल चाह रहा था की समय थम जाये लेकिन वो मुमकिन न था क्योंकि सूर्यदेव दिल की नहीं मस्तिष्क की सुनते हैं……….. समय आगया था जुदा होने का……. मैंने वेटर तो बिल लाने को कहा……… उसने चमक भरी आँखों से कहा, “यस सर” मनो वो इसी इंतज़ार में बैठा था………. बिल का भुगतान कर के हम बहार जीने की ओर बड़ने लगे……….. अब दिल में एक उदासी सी थी क्योंकि निशी को उसी रात वापस बंगलौर जाना था………. हम बातें करते करते नीचे पहुँच गए…………. आंखें नाम थी और खोकली हसी से मैंने उससे अलविदा कहना चाहा तभी ध्यान आया की मैं वेटर को टिप देना भूल गया………. निशी को वही रोक में वापस ऊपर चला गया………. वो मेरा इंतजार कर रही थी तभी एक जोर का धमाका हुआ और वहां चीखो पुकार होने लगी………. निशी हथप्रभ खामोश ऊपर काफी शॉप की ओर नजरें गडाए खड़ी थी शायद इस इंतजार में कि मैं उस के पास आऊं और अलविदा कहूं…………. लेकिन मुझे अलविदा कहने का भी मौका नहीं मिला………….. मैं निशी को देख सकता था उसकी ख़ामोशी को समझ सकता था लेकिन कुछ कर नहीं सकता था………….
सुना ही था अब महसूस भी कर लिया की जिंदगी के बाद भी एक जिंदगी है……….
wow..really 'DIL SE' once more.loved the story, rather the truth that can happen in any life. I know there are many people who can become so close without a meeting as though they are more close than the best of friends.And how very true that one cannot share this beautiful pure relationship just because of the gender difference.Loved it Harish.Write more , I am waiting to read
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