Saturday, May 7, 2011

"माँ"......

मदर्स डे की पूर्व संध्या पर सभी माओं को मेरी शुभकामनायें........... "माँ" कहावत है जहाँ ईएश्वर मदद के लिए नहीं पहुँच पाते वहां माँ साथ होती हैहमारी दुनिया में माँ का दर्जा ईएश्वर से कम नहींहो भी क्यूँ नहीं माँ होती ही ऐसी हैखुद भूखा रह कर भी हमें खिलाती है माँहमारे दर्द अपना लेती है माँतपती धूप में भी छावं देती है माँप्यार का सागर है माँमाँ ममता की देवी हैलगती है चोट हमें तो कराह उठती है माँमाँ होती है तो मकान घर बन जाता हैनहीं, तो महल भी खँडहर में बदल जाते हैंबच्चे कैसे भी हों हमेशा प्यार करती है माँहमारी ख़ुशी में खुश होती है माँ और हमारे दुखों में ढाल बन जाती है माँ
आईये हम सब अपनी माँ के साथ बिताया हुआ समय याद करें और अपने अपने स्मरण लिखें...............

Wednesday, May 4, 2011

अनजाना.....

अमरीका से जब प्रखर अपने देश के लिए निकला था तो बहुत खुश था। हो भी क्यूँ ना, कितने लम्बे अरसे के बाद पढाई से छुट्टी मिली थी। प्रखर लम्बे कद और काफी आकर्षित व्यक्तित्व वाला नौजवान था। अपने माँ बाप का लाडला और बहन का दुलारा। दिल्ली पहुँच के उसने अपनी माँ को फ़ोन कर बताया कि वो भारत पहुच चूका है और कुछ ही घंटों में अपनी माँ के पास पहुँच रहा है। लेकिन प्रखर के पिता चाहते थे कि वह पश्चिम के रास्ते उत्तराखंड राज्य की संस्कृति और रीती रिवाजों को जानते हुए घर वापस लौटे। १७ अप्रैल को प्रखर उत्तराखंड राज्य के सबसे सुन्दर नगर, नैनीताल पहुँच गया और अपना सामान नगर के ही एक होटल में रख नैनिताल की वादियों में घुमने निकल पड़ा। १८ तारीख को उसने दिन में लगभग बारह बजे अपने घर फोन किया और बताया कि वो नैनीताल में रह रहा है और कुछ दिन कुमाउन की संस्कृति से रूबरू होकर अपने वतन वापस लौट आएगा।
उस दिन के बाद से वो न तो अपने होटल ही लौटा ना उसका कोई संपर्क अपने घरवालों से हुआ। २१ तारीख को प्रखर के घरवाले उसकी खोजबीन करने काठमांडू से नैनीताल पहुंचे और उसकी खोज में नैनीताल और आसपास का चप्पा चप्पा छान मारा लेकिन हताशा ही हाथ लगी..............
आज सवेरे मैं दफ्तर पहुंचा ही था कि कुछ देर में खबर आई कि चाइना पीक के नीचे पहाड़ी में किसी कि लाश देखि गयी है। मैं अपने कुछ मित्रों के साथ कोतवाली पहुँच गया, वहां पहुँच के पता चला कि जो लाश मिली थी उसकी शिनाख्त प्रखर पोखरेल के रूप में उसके माँ बाप द्वारा कर ली गयी है। अन्दर देखा एक महिला फूट फूट के रो रही थी और कुछ लोग उसे चुप करने कि कोशिश कर रहे थे। वहां का माहौल देख मेरी भी आँखें भर आयीं थीं। एक माँ के लिए इस से बड़ी पीड़ा और क्या हो सकती है कि जिस बच्चे को २५ वर्षों तक अपने कलेजे से लगा के रखा हो वो ही न रहा...... न जाने कितने सपने सजोये होंगे............ कितनी आस लगायी होंगी........... सब कुछ एक चुटकी में समाप्त हो गया था। हम कितनी ही दिलाशा क्यूँ न दे दें लेकिन जिस पे गुजरती है वो ही अपने दर्द को पहचानता है। उसके पिता और दो चचेरे भाई जो साथ में थे, से हमने बातें करना शुरू किया और उन्हें दिलशा दी कि वो खुद को परदेश में रहकर भी खुद को अकेला न समझें। जब तक कोतवाली की कागजी कार्यवाही चल रही थी हम में से दो लोग नयना देवी मंदिर गए और एक पंडित जी से अंतिम क्रिया संपन्न कराने की बात कर के आ गए साथ ही अर्थी का सामान भी लेते आये। में और मेरा एक मित्र कुछ और लोगों को जुटाने चल पड़े। तक़रीबन तीन बजे हम आठ लोग चार पोलिसे कर्मियों के साथ घाट को चल पड़े। पिंस पहुच कर जब पुलिस अमबुलंस का दरवाजा खुला तो चालक बोला आप लोग बॉडी को बहार निकालिए। में और गोलुदा उसके करीब पहुंचे तो देख के भौंचक्के रह गए क्यूंकि वो ६ फूट ३ इंच का नौजवान अब मात्र तीन चार किलो का ही रह गया था। इतने दिनों में चील कव्वे और जंगली जानवर उसकी बोटी बोटी नोच के खा चुके थे। मैं और गोलुदा उसके शव को अपने हाथों में लेकर नीचे घाट की तरफ चल पड़े। नीचे पहुँच शव की पोटली एक किनारे रख चिता लगाने में लग गए. चिता लगा दी गयी अब पंडित जी ने मन्त्र पड़ने शुरू किये, लेकिन पंडितजी को देख हम सभी को खूब जलालत का सामना करना पड़ा। न पूछिए क्यूँ? पंडित जी तो पहले से ही शोमरस क नशे में धुत्त थे। जैसे तैसे अंतिम रश्में पूरी की गयीं। प्रखर के पिता ने अपने लाल को मुखाग्नि दी। प्रखर की माँ भी अपने कलेजे के टुकड़े को अंतिम विदाई देने घाट में अंतिम आंच तक खड़ी रहीं। जब मैंने प्रखर क शव को प्लास्टिक शीत से बहार निकला तो मेरा माथा सन्न हो गया। उसका शरीर कंकाल के सिवा कुछ भी न था। ऐसा विभत्स रूप मैंने कभी नहीं देखा था। एक घंटे से भी कम समय में वह हड्डियों का ढांचा मिटटी में मिल गया। अन्त्त में एक हांड़ी में कुछ अस्थियाँ डाल के उन्हें सौंप दी गयीं। उसके बाद सभी ने नाम आँखों से पोखरेल परिवार को विदा किया इसी कामना क साथ की ईएश्वर उनके पुत्र की आत्मा को शांति प्रदान करे।
हे प्रभु ऐसा कस्ट किसी भी माँ बाप को न दें। सन्तान न दे लेकिन देने क बाद ऐसे न छीने। अपना आशीर्वाद हमेशा बनाये रख्येगा प्रभु......................

Tuesday, May 3, 2011

करबो................................... लड़बो......................................जीतबो...................................

लादेन मारा गया!!!!!!!!!!!!!!!!!!!! कितना सच कितना झूठ.......................

लादेन मारा गया, अच्छा है लेकिन ये मार काट ये खून खराबा....... इस सब से हासिल क्या होगा? क्या किसी वर्चस्व की लड़ाई है ये? पानी की तरह पैसा बहाया जाता है किसी और का खून बहाने के लिए........... कितना अच्छा होता अगर हम सब एक परिवार की तरह रहते.............. मैं अगर जादूगर होता तो साडी दुनिया के लोगों के जहन से क्रोध, कडवाहट और इर्षा को ख़त्म कर देता , ये जहां कितना सुन्दर हो जाता.............. कहीं पर भी कोई वार्तालाप चल रहा होता तो उसमे सिर्फ मुस्कान, प्यार, दया और मधुरता दिखाई देती। लेकिन ये सिर्फ ख्यालों में ही हो सकता है, हकीकत कुछ और ही बयां करती है......................
अमरीका ने जो बीज वर्षों पहले बोये थे आज वो काँटों भरे पेड़ पूरी दुनिया में अपने काटें बिखेर रहे हैं। मुझे ज्यादा ज्ञान नहीं है लेकिन मैंने सुना है रूस के खिलाफ अमरीका ने ही अफगानिस्तान के सीधे साधे गाँव वालों को हथियारों का प्रशिक्सन दिया और रुसी फौजों के खिलाफ उनको खड़ा कर दिया............ स्कूल जाने की उम्र में बच्चों के हाथों में अश्लाहा बारूद और धर्म की मार पड़ गई। शाक्षर ना होने के कारण वहां के लोगों को प्रगति के बजाय युद्ध के मैदान में धकेल दिया गया..........................
आतंकवाद का अंत हो पाना बेहद मुश्किल बात है। सिर्फ हमारी एकता और हिम्मत ही आतंकवाद का सामना कर सकती है............. और एकता के लिए हमें नेता और उनकी नीति से काफी ऊँचा उठ कर लडाई लड़नी होगी..............

करबो................................... लड़बो......................................जीतबो...................................

Tuesday, April 26, 2011

"नया मेहमान"

शेखर मुझे लगता है मैं फिर से माँ बनने वाली हूँ................. मनु की बात सुन शेखर स्तभ्द सा रह गया। कुछ क्षण सोचने के बाद वह बोला, "तुम मजाक तो नहीं कर रही हो ना" ????? नहीं, आई ऍम नौट जोकिंग...... क्या हम इसके लिए तैयार हैं? ये सवाल शेखर के दिमाग में कौंध रहा था। जब शेखर और मनु का बेटा दो साल था तब वो अक्सर सोचते थे कि जब भी वे दोनों दूसरे बच्चे को पालने लायक हो जायेंगे तो कोशिश करेंगे कि एक बच्ची को गोद लेंगे। शायद येही वजह थी जो शेखर को सोचने पर मजबूर कर रही थी। "क्या मैं अबोर्सन करा लूं"?, मनु ने कहा .............. नहीं कभी नहीं शायद यही ईएश्वर की मर्जी है, कहकर शेखर मनु की ओर बड़ा और मनु को गले से लगा लिया।
दिन बीतने लगे, घर में सभी को नए मेहमान के आने का इंतज़ार था। सभी काफी खुश थे और होते भी क्यूँ नहीं, बच्चों और बूढों के आने पर हर कोई खुश होता है........... आखिर वो दिन आ ही गया.......... मनु को सोनपुर के जिला चिकित्सालय में भारती करा दिया गया। एक रात रुकने के बाद मनु को आप्रेसन के लिए तैयार किया गया, शेखर के दो मित्र जिनका खून मनु के खून से मिलता था वहां पहुच चुके थे............... आप्रेसन शुरू हुआ और बाहर शेखर अपने मित्रों तथा परिजनों के साथ खड़ा ईएश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि उसे एक प्यारी सी बिटिया मिले.............. शेखर और बीरू में शर्त भी लग गयी कि बेटी होगी तो स्पेशल पार्टी होगी.............. तभी नर्स बाहर आई और हस्ते हुए बोली ,"बधाई बेटा हुआ है",.............. ओऊ.......... क्या प्रभु फिर बेटा दे दिया............ कहते हुए शेखर ने अपने मित्र को गले लगाया, फिर अपने बड़े भाई को गले लगाया............... कुछ देर बाद मनु और नया मेहमान सल्य चिकित्सा कक्ष से बाहर आये............ छोटू तो पैदा होते ही आँखें खोल के सब को टुकुर टुकुर देखने लगा। मनु और शेखर बहुत खुश नज़र आ रहे थे......... कभी उसका नाम सोचते तो कभी उसे प्यार करते....... अब वो दो नहीं तीन नहीं चार हो गए थे। रात को मनु के साथ शेखर और उनका एक मित्र साथ में रुका करता था । खूब हसी मजाक चलती नए नए नाम सोचे जाते और बड़े बड़े सपने देखे जाते........
चौथे दिन सुबह से ही बच्चे को थोड़ी परेशानी सी महसूस हो रही थी तो शेखर छोटू को लेकर डाक्टर साब के पास ले गया लेकिन डाक्टर साब ने सब कुछ नॉरमल बताके वापस भेज दिया। जैसे जैसे दिन गुजरता गया नए मेहमान कि हालत और बिगडती गयी, लेकिन डाक्टर साब तब भी सब कुछ हलके में ही ले रहे थे। जब बात हद से गुजर गयी तो शेखर बच्चे को लेकर अपनी माँ भाई और दो मित्रों के साथ सोनपुर से चालीस किलोमीटर दूर बड़े शहर को रवाना हो गया। शेखर बार बार अपने बच्चे को देखता और ईएश्वर से प्रार्थना करता जा रहा था। कुछ दूर पहुँचने के बाद अचानक शेखर की माँ बोली ,"बच्चे के हाथ पैर इतने ठन्डे हो गए हैं, मुझे लगता है इसमें कुछ नहीं बचा है" लेकिन शेखर कुछ मानने को तैयार ही नही था............. शहर पहुच के बड़े अस्पताल में बच्चे को दिखाया गया........... वहां के डाक्टरों ने काफी कोशिश की बचाने की लेकिन बचा नहीं पाए............. अब शेखर हार चूका था, उसका गला भर आया और वो अपने मृत बच्चे को गले से लगाये फूट फूट के रोने लगा............ लेकिन नए मेहमान का साथ तो उनकी जिंदगी में सिर्फ नौ महीने चार दिन का ही लिखा था।
वो सब वापस सोनपुर के लिए रवाना हो गए और मनु को नए मेहमान का आखरी दीदार करा के उस तृप्त आत्मा को अलविदा किया। मनु और शेखर को अस्पताल का वो कमरा बार बार नए मेहमान की याद दिला रहा था, दोनों के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे........... फर्क सिर्फ इतना था मनु के आंसू सबको दिख रहे थे और शेखर के नहीं................. आँखों में नीद तो थी नहीं बस रात भर मस्तिस्क इधर उधर डोल रहा था। शेखर अपनी सोच में ईएश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि काश उन्हें कोई ऐसा गरीब परिवार मिल जाये जिन्हें जुड़वाँ बच्चियां हुई हों और वो एक बच्ची उन्हें गोद दे दें।
समय बीतता गया और मनु को अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। घर आई लेकिन घर घर सा नहीं रहा............. दिन रात उदासी और आंसू बस यही रह गया था।
दो हफ्ते गुजरने के बाद शेखर मनु को पट्टियां बदलने के लिए शहर के अस्पताल ले गाया । जब मनु की पट्टियां बदली जा रही थी तभी दो महिलाएं आपस में किसी बच्चे को गोद लेने की बात कर रही थीं। मनु से नहीं रहा गया और उसने उन महिलाओं से साड़ी जानकारी ली और अगले ही दिन शेखर और मनु बताये हुए पते में चले गए........... एक गरीब लेकिन इमानदार परिवार। और परिवार में एक बूढी माँ, बेटा बहु , एक पोता और दो प्यारी सी नन्ही सी पोतियाँ.............. शेखर हिचकिचाते हुए बोला, " हमने सुना है आप अपनी जुड़वाँ बेटियों में से एक को गोद देना छह रहे हैं"? सुनकर परिवार वाले भी सकपकाए लेकिन फिर अन्दर बैठा पानी पिलाया और शेखर मनु के घर तथा घर वालों के बारे में पूछने लगे। वो गरीब जरूर थे लेकिन अपनी बच्ची को किसी के भी हाथों में नहीं देना चाहते थे, वे चाहते थे की उनकी बच्ची एक अच्छे परिवार में जाये................ कुछ दिनों के बाद बात करने को कह के मनु और शेखर वहां से वापस हो लिए।
अब एक और इंतज़ार शुरू हो गया था, कई सवाल इन्हें हर वक़्त घेरे रहते थे। एक उम्मीद सी जगी थी जिसने मनु और शेखर को वापस उत्साहित कर रखा था.....
कुछ दिन इसी उत्साह में बीत गए, और फिर एक सुबह फ़ोन की घंटी बजी और उधर से सिर्फ इतनी आवाज़ आई , "नमस्कार आप कल आके बच्ची को ले जाना" । ये सब्द सुनते ही शेखर के हाथों से फोन गिर गया और ऑंखें नम हो गयीं............... कुछ पल के सन्नाटे बे बाद शेखर चिल्लाया, " कल हमारी बेटी आ रही है"। सब लोग ख़ुशी से झूम उठे और मनु तो मनो गगन में उड़ रही हो..............
अगले ही दिन मनु शेखर और माँ अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा वरदान लेने जा रहे थे............ वहां पहुंचके मनु ने बच्ची को अपने सीने से लगा लिया, शेखर के फ़ोन में बार बार घंटी बज रही थी, घर पे सारे लोग इंतज़ार कर रहे थे कि कब बच्ची घर आये...............
और वो क्षण आ ही गया शेखर, मनु और बिटिया...........................
शेखर और मनु के लिए वो सिर्फ बेटी ही नहीं साक्षात् माँ दुर्गा का रूप था.............
आज लगभग ६ वर्ष बाद भी शेखर और मनु के जीवन में वो "नया मेहमान" अलविदा कह के भी साथ बना हुआ है....................

Wednesday, April 20, 2011


२१ अप्रैल २००१ की सुबह अनु को कुछ परेशानी सी महसूस होने लगी................. हम अनु को लेकर श्री राम हॉस्पिटल पहुँच गए। वहां डॉ क्रिष्णा साह ने उसे देखते ही भर्ती करने के लिए कह दिया। सारा दिन अस्पताल और उसके इर्द गिर्द ही बीता............. रात आठ बजे के करीब डाक्टर साब ने बोला ऑपरेशन करना पड़ेगा क्यूंकि बच्चे की पल्स हलकी हो रही है। हमारे पास कोई चारा नहीं था और जहाँ जहाँ मुझसे हस्ताक्षर करवाने थे करवा लिए.......... अनु भी डरी हुई थी , सब घबरा रहे थे। मैं मन ही मन गायत्री का जाप कर रहा था और फिर मैंने अनु को महाराजजी का स्मरण कराया और पल भर में कुछ वार्ड बॉय उसे सल्य चिकित्सा कक्ष में ले गए.............. मैं पापा बनने जा रहा था। भीतर ऑपरेशन चल रहा था और बाहर सभी के मस्तिष्क में अलग अलग बातिएँ कौंध रही थी। सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता था........... शायद ईजा ईएश्वर से प्रार्थना कर रही होगी, "हे प्रभु मुझे एक पोता दे दो" , हमारी एक रिश्तेदार साथ में बैठी थी और शायद वोह सोच रही होंगी कि प्रभु इनके घर कन्या को ही जन्म देना...........बेटा मत देना.............. शायद बाबूजी भी सोच रहे हों कि पोता आये, और वो अपनी बहु के लिए निरंतर ईएश्वर से दुआएं मांग रहे होंगे............... सबकी अपनी अपनी सोच लेकिन मैं इन सब चीजों से बेखबर गायत्री का जाप करने में लगा हुआ था............... मैं ईएश्वर से येही दुआ मांग रहा था कि मेरी पत्नी और जिस बच्चे को वह जन्म दे दोनों स्वस्थ हों................ मेरे दिल कि सुन्येगा तो मैं चाह रहा था कि एक प्यारी सी बिटिया जन्म ले और उसका नाम हम हर्शिनी रखें। अनु भी यही चाहती थी............... मैं इधर से उधर चलने में लगा था और जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था धड़कने और तेज़ होती जा रही थीं...........
तभी सन्नाटे को चीरती हुई एक नवजात बच्चे की रोने की आवाज आई................. अब ये तो तय था मैं बाप बन गया हूँ................ जैसे परीक्षा में पास होने के बाद एक लालसा बनी रहती है कि कौन सी डिविजन मिली है वैसा ही कुछ यहाँ भी हो रहा था............. लड़का या लड़की?................. कुछ क्षण बाद नर्से बहार आई और बोली, "मिठाई मंगाओ, बेटा हुआ है" ..................... और अनु??????? मेरे मुंह से निकला............. नर्स बोली पेसंट भी ठीक है दोनों स्वस्थ हैं..... मैंने ईएश्वर को धन्यवाद किया और फिर शर्म से इधर उधर देकने लगा............. ईजा ने मुझे बधाई दी, फिर दर्शन ,आंटी और बाकी लोगों ने भी............... ईजा ने मुझसे फोन करके सबको बताने के लिए कहा, लेकिन मैं अनु का इंतज़ार करता रहा............... थोड़ी देर में एक नर्स बच्चे को गोद में लिए हमारे पास आई और मैंने बब्बा को पहली बार देखा......... उसकी गोल गोल प्यारी आँखों ने मेरी पूरी दुनिया ही बदल दी।उसको प्यार करके मैंने अनु को देखा, वह अर्ध चेतनावस्था में थी मैंने उसके माथे में चूमा और फिर बाहर फ़ोन करने के लिए चला गया। चूँकि उस वक़्त मोबाइल फ़ोन का चलन शुरू ही हुआ था तो उसका इस्तेमाल बहुत महंगा पड़ता था......... मेरे पास तब मोबाइल फोन नहीं था। इसलिए मैं एसटीडी में गया और पहला फ़ोन घर बाबूजी को किया........... शरमाते हुए मैंने कहा, वो ऑपरेशन हो गया है और वो ...... बे ......ला.... ला........ बेटा हुआ है............... बाबूजी काफी खुश हुए फिर दीदी ने कहा बधाई तू पापा बन गया है............... मैं उस से पहले कभी बाप नहीं बना था न इसलिए शर्म आ रही थी.............. फिर मैंने भाई को बताया........ फिर बारी आई विक्की कि और गिरीश की.................. उसके बाद फिर बाकि लोग...........
अब बारी आई नाम की तो सब परेशां................... क्यूंकि हमने तो सारे नाम लड़कियों के सोचे थे.......... तब में "गिलानी गिफ्ट्स'" से एक नामों की किताब लेकर आया.............. उसमे कई नाम थे, कुछ साधारण कुछ असाधारण, कुछ छोटे कुछ बड़े कुछ नए कुछ पुराने................ लेकिन मेरे को सबसे अच्छा "एकलव्य" ही लगा और वो सब को पसंद आया.....................
कुछ ही क्षणों में एकलव्य १० वर्ष का हो जायेगा................ मैं प्यार से उसे बब्बा कह कर बुलाता हूँ............. आज "एकलव्य" के दसवे जन्मदिन पर मैं ईएश्वर से प्रार्थना करता हूँ, "हे ईएश्वर एकलव्य को आशीर्वाद दें कि वो सब का सम्मान करे, दयालु बने, स्वस्थ रहे, सभी को खुश रखे , बड़ा इंसान बने (दिल से), म्रदुभाशी हो और हमेशा सच बोले"....................

Saturday, April 16, 2011

शेरदा............. शेरदा मामा.............. शेरदा ताव्जी .................... इन्ही नामों से पुकारा गया है उन्हें। मैं जब बच्चा था तब से शेरदा मामा को देख रहा हूँ। कई लोग पूछते हैं आखिर ये हैं कौन? आप हैं शेर सिंह जी......... कालाढूंगी के पास किसी गाँव में रहते थे आप........... पत्नी बच्चे और भाई बहेन सभी का साथ था............ भाई ने किसी की हत्या करी और फस गए शेरदा मामा.............. जेल, थाना और किमचल प्रदेश में एक बाबा की तरह जिंदगी बितायी है आपने...... सच्चाई सामने आई और आप बैज्जत बरी हो गए............ लेकिन रिश्ते टूटते चले गए............ पत्नी बेटे भाई ...........सब दूर होते गए........... याद है जब नाना जी की ठेकेदारी अच्छी चलती थी तब शेरदा मामा उनका काम देखा करते थे, एक मुंशी की तरह........... समय बीता और समय के साथ ही हम सब बच्चे बड़े होकर अलग अलग जगह चले गए............. हल्द्वानी से नैनीताल आये पढाई पूरी की और नौकरी लग गई............ शादी हो गई बच्चे हो गए................ बच्चे बड़े होने लगे और अब जरूरत थी किसी के साथ की.......... तभी एक दिन अकस्मात् शेरदा मामा हमारे गौलापार स्थित फार्म हाउस में प्रकट हो पड़े............ सालों बाद उन्हें देखा था लेकिन मैंने पहचान लिया........... वो हमारे साथ ही रहने लगे.......... जब एकलव्य तीन वर्ष का हुया तो हम नैनीताल आ गए ............ जिंदगी ठीक थक चलती रही......... लेकिन स्मैरा के आने के बाद हमें थोड़ी तकलीफ होने लगी............... लेकिन उसके स्कूल जाने तक महाराजजी ने शेरदा मामा को हमारे पास नैनीताल भेज दिया............. तब से मामा यहीं पर हैं......... आज वो पुरे पडोस के मामा हैं........... मेरे सारे मित्र उन्हें मामा कह के ही पुकारते हैं........... अब वो हमारे घर के ही सदस्य हैं............. हां कभी कभी उनकी आँखों में आंशू जरूर देखे हैं मैंने.......... अब हमारा परिवार ही उनका परिवार है........... उनके यहाँ होने से हमें काफी तसल्ली होती है की घर में कोई बुजुर्ग हैं............. साल में चार बार से ज्यादा नहीं नहाते हैं मामा.........अक्टूबर से अप्रैल तक शेर्हा मामा मामा कम और एस्किमो ज्यादा लगते हैं............... उम्र भी होई है........ मेरी साडे चार साल की बेटी उन्हें अपना स्टुडेंट बना कर पडाती है................ हम अगर देर से घर पहुंचे तो मामा नाराज हो जाते हैं............. शेरदा मामा महान हैं....................हम ईश्वर को धन्यवाद करते हैं कि हमें शेरदा मामा का साथ मिला................

Thursday, April 14, 2011

नमस्कार................... आज काफी समय के बाद "दिल से" कुछ लिख रहा हूँ। मैंने सुना है महत्वकांशी होना बुरी बात नहीं है, हाँ अति महत्वकांशी होना ठीक नहीं........ मैं भी इसी दौड़ में शामिल हूँ । हाँ मैं महत्वकांशी हूँ............. कई बार लगता है कि क्या मै सही कर रहा हूँ? क्या अपनी महत्वकान्शाओं को पूरा करने के लिए जी हजूरी करना जरूरी है? चापलूसी करना ............... बेवजह तारीफ करना............ शोशे बाजी करना ............... हवा बनाना ......... या फिर सिर्फ मेहनत के बलबूते पर आगे बढना???????????????
मुझे लगता है सिर्फ किताबी बातों से ही आगे नहीं बड़ा जा सकता है। शायद हर कदम पे दिल और दिमाग को चुस्त रखने कि जरूरत है। अपनी बातों में अपनी सोच में एक लचीलापन लाना होगा............. ये लचीलापन अगर न हो तो जिंदगी नटवरलाल कि तरह हो जाएगी.............
क्या अपनी महत्वकंसाओं को पूरा करने में अगर किसी की जी हजूरी या चापलूसी करनी पड़ी तो
कुछ गलत है? हाँ हमारे व्यहार से किसी को कष्ट न पहुंचे ना हि हम किसी के लिए बुरा सोचें........ अगर आप का बॉस आपको दो दुनी पांच बता रहा हो, तो मै समझता हूँ उसे मानने में कोई हर्ज़ नहीं है अगर किसी का नुक्सान न हो रहा हो तो...............
इन सब के बीच अपने दिल को जरूर खुला रखें ताकि आप से कोई गलती न हो जाये..................... दिमाग गलत सोच सकता है ........... लेकिन........... दिल गलत नहीं कर सकता है............ तो अपनी महत्वाकान्साओं को पूरा करने के लिए सोचें "दिल से"...............

Thursday, March 31, 2011

कुछ दिनों से अत्यधिक दौडभाग के चलते मैं अपने दिल की बातें आप तक नहीं पहुंचा पा रहा हूँ, जिसका मुझे खेद है लेकिन बहुत जल्द 'दिल से' आप के समक्ष्य हाजिर हूँगा.......... कुछ नया कुछ पुराना लेकर, लेकिन दिल से..........

Friday, March 25, 2011

आज सुबह सुबह मेरी आखें भर आई........... अचानक वो दिन याद आ गए जब बाबूजी को किसी झूठे केस में फसा के नौकरी से निलंबित कर दिया गया था........... मैं तो बहुत छोटा था उस वक़्त लेकिन कुछ धुंदली सी यादें हैं जो मैं कभी नहीं भुला सकता ........ साठ रुपया सैंट जोसेफ की फीस हुआ करती थी भाई की, महीनों तक नहीं दे पते थे............. बाबूजी चैन स्मोकर थे, अभी भी पीते हैं लेकिन हम से छिप के......... मुझे याद है कई बार एक बीडी (चूँकि सिगरेट नहीं खरीद सकते थे) का बण्डल लेने के लिए भी हमारे मिटटी के गुल्लख से चार आने या आठ आने निकलने की कोशिश करते थे.............
बाबूजी कपूर लौज वाले बाबाजी के बहुत बड़े भक्त थे......... मुझे याद है उनके लिए जंगलों से सलाम पंजे की जड़े खोद के लाते थे बाबूजी............. छोटी सी परेशानी हम पे आती है तो हुम सेहन नहीं कर पते हैं लेकिन बाबूजी ने जो परेशानियां अपने उस दौर में झेलीं उसका कभी एहसास तक, हमें होने न दिया............... वो सच्चे थे और जीत उन्ही की हुई.......... फिर से सब कुछ अच्छा होने लगा।
अपने पुरे जीवन में बाबूजी ने जो कुछ भी कमाया हम बच्चों पर लगा दिया............ बाबूजी हमारे पिता कम और मित्र ज्यादा हैं........... मैं ईश्वर से हमेशा प्रार्थना करता हूँ कि मुझे जितने भी जनम मिले किसी भी रूप में मिले, मेरे पिता बाबूजी ही रहें....................
हमें बाबूजी से बहुत कुछ मिला है और वो ही हम अपने बच्चों दो दे रहे हैं............ और शायद वो अपने बच्चों को दें.............

Tuesday, March 22, 2011

काफी शाप

काफी शाप...
निशी काफी शाप में मेरा इंतजार कर रही थी, लेकिन मैं अपने ही कामों में व्यस्त लगभग भूल ही गया था कि मुझे निशी से आज पहली बार मिलना था.... हाँ मुलाकात पहली थी लेकिन पहचान पुरानी......... हम ना तो साथ पड़े थे, ना बचपन के दोस्त, ना पडोसी और ना ही प्रेमी थे............ लेकिन पिछले एक साल से हमारा रिश्ता उन दोस्तों से कम ना था जो बचपन से साथ पाले बड़े हों.......... क्यूँ एक वर्ष कम लगता है? तो मैं कहूँगा बारह महीनो में हम एक दुसरे के इतने करीब आ गए थे मनो जन्मों जन्मान्तर का साथ हो.......... आश्चर्य होता है ना किसी को मिले बिना यह कैसे संभव है? लेकिन ऐसा हुआ.............
हाँ, मैं समझ सकता हूँ कि आप सभी के दिमाग में यह सवाल कौंध रहा है कि हम मिले कैसे....... हमारी मुलाकात इस कंप्यूटर युग में इन्टरनेट के जरिये हुई......... आज इंसान के पास समय नहीं है अपनों से मिलने का लेकिन इस कमी को पूरा किया है मनुष्य जाती कि इस बड़ी खोज ने.......... आप भी सोच रहे होंगे कि मैं भटक गया हूँ......... नहीं !! ऐसा बिलकुल भी नहीं है, चलिए आगे बदें..........
मैं अपने किसी जरूरी कार्य में मशगूल था और तभी मेरे चालित दूरभाष यन्त्र में कम्पन हुई, देखा तो वह निशी का कॉल था............ वो मेरा पिछले आधे घंटे से इंतज़ार कर रही थी........ सुनने में थोडा अटपटा सा लगता है न कि एक महिला मित्र को इंतज़ार करना पड़ रहा था और में अपना काम निपटने में लगा हूँ.......... अपने स्कूली दिनों कि याद आ रही थी, उस वक़्त अगर किसी बाला से मिलना होता था तो में एक घंटा पहले ही से उसका इंतज़ार करने लगता था और आज एक महिला मित्र मेरा इंतज़ार कर रही थी............ मैंने अपना सारा काम छोड़ा और काफी शाप के लिए निकं पड़ा, चूँकि दूरी अधिक नहीं थी में कुछ क्षणों में ही वहां पहुँच गया.......
दिल में धड़कन और आँखों में चमक लिए मेरे कदम जीने से ऊपर कि ओर बड़ने लगे और ऊपर पहुँच के जो शहर का विहंगम दृश्य देखा वो मैंने कभी न देखा था.............कितना सुकून था वहां...... और इन सब के बीच एक खूबसूरत लेकिन साधारण सा चेहरा अपने चक्षुओं में मुश्कान बिखेरे मेरे करीब आया और मुझे अपने आलिंगन में ले लिया............ क्षण भर के लिए भी यह प्रतीत नहीं हुआ कि हम पहली बार मिल रहे हैं.............अन्दर ज्यादातर लोगों के चेहरे हमें ऐसे घूर रहे थे मानो हम इंसान नहीं कोई अजूबे हों, कुछ असहज जरूर महसूस कर रहे थे हम लेकिन थोड़ी देर में सब सामान्य हो गया.......... हम दोनों में एक और असमानता थी, वो अपने दिल की सुनती थी लेकिन वक़्त पड़ने पर अपने मस्तिष्क का भी इस्तेमाल करती थी और में उसके एकदम विपरीत सिर्फ और सिर्फ अपने दिल की ही सुनता और करता हूँ......... आप सोच रहे होंगे मैंने कहा 'दो असमानताएं थी' लेकिन पहली का जिक्र तो कहीं हुआ ही नहीं, अरे साब अपने मगज पे इतना जोर ना दें, पहली असमानता तो जग जाहिर है; मैं पुरुष और वो महिला ............

हमारी बातें ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी, मनो फिर दुबारा मुलाकात हो ही नहीं……… उस में कोई छल नहीं था, दिल साफ़ और दूरियों का सही अंदाजा था उसे ……… प्यार एक ऐसा विषय था जिसमे वो मुझ से बिलकुल भी इत्तेफाक नहीं रखती थी…...

मेरा मानना है की आपको अपनी जिंदगी में प्यार किसी से भी किसी भी उम्र में और कभी भी हो सकता है…………… हाँ हो सकता है लेकिन किया नहीं जा सकता है………. मेरा मानना है की आप को एक ही व्यक्ति से प्यार हो जरूरी नहीं ……….. लेकिन उसका कहना था ऐसा संभव नहीं है………. आप अपने प्यार को टुकडो में बाँट नहीं सकते……… में निशी की सोच को गलत नहीं कहूँगा…….. वो अपने नजरिये से सोचती है ……… हर कोई अपने नजरिये से सोचता है………..

हाँ अगर प्यार को हम काम से जोड़ दे तो इसकी परिभाषा ही बदल जाएगी…….. प्यार तो एक अनुभूति है, काम वासना से बहुत दूर………….. प्यार सिर्फ एक पुरुष और महिला के दर्मिया ही नहीं देखा जा सकता है…….. प्यार किसी वस्तु, किसी जानवर से भी हो सकता है…….. चलिए यह तो एक लम्बी बहस का मुद्दा है, देखें काफी शॉप के भीतर क्या चल रहा है……..

जिस स्थान पे हम बैठे थे वहां से बहार का नजारा देखने लायक था, तभी बाहर देखते हुए निशी बोलीकाश अभी बारिस हो जाती”………… यकीन मानिये मानो इन्द्र देव ने सुन लिया हो……….. बहार झमा झम वर्षा होने लगी……….. मन कर रहा था फिर से बच्चे बन जायें और पानी से खेलें भीगें और नाचें………… लेकिन आज यह सब करने में शायद हमें पागल कहा जाता………… हमारी काफी खत्म हो चुकी थी और जाने का मन अभी था तो एक एक और माँगा ली………. इस सब के बीच हमें एक चीज बार बार खटक रही थी……….. येही की हम कुछ गलत नहीं कर रहे एक मित्र दुसरे मित्र के साथ बैठा है……… लेकिन ये बात हम अपने सबसे करीबी सखा , अपने जीवन साथी को क्यूँ नहीं बता सकते………. क्यूँ एक दुसरे को मिला सकें……. क्या ये गलत है की मैं पुरुष और वो एक महिला है……….. अनेक सवाल कौंध रहे थे हमारे भीतर……. निशी ने अपनी चुप्पी तोड़ी और कहा , ये बात उन्हें तब तक बुरी लगे शायद जब तक उन्हें भी कोई हमारे जैसा मित्र मिल जाये, लेकिन तब तक उनका इस बात को चाहना लाजमी है………. मुझे भी लगा की शायद कुछ बातों को समझाया नहीं जा सकता है……….. सिर्फ समझा जा सकता है………

बातों बातों में पता ही नहीं चला कि कब तीन घंटे व्यतीत हो गए…….. दिल चाह रहा था की समय थम जाये लेकिन वो मुमकिन था क्योंकि सूर्यदेव दिल की नहीं मस्तिष्क की सुनते हैं……….. समय आगया था जुदा होने का……. मैंने वेटर तो बिल लाने को कहा……… उसने चमक भरी आँखों से कहा, “यस सरमनो वो इसी इंतज़ार में बैठा था………. बिल का भुगतान कर के हम बहार जीने की ओर बड़ने लगे……….. अब दिल में एक उदासी सी थी क्योंकि निशी को उसी रात वापस बंगलौर जाना था………. हम बातें करते करते नीचे पहुँच गए…………. आंखें नाम थी और खोकली हसी से मैंने उससे अलविदा कहना चाहा तभी ध्यान आया की मैं वेटर को टिप देना भूल गया………. निशी को वही रोक में वापस ऊपर चला गया………. वो मेरा इंतजार कर रही थी तभी एक जोर का धमाका हुआ और वहां चीखो पुकार होने लगी………. निशी हथप्रभ खामोश ऊपर काफी शॉप की ओर नजरें गडाए खड़ी थी शायद इस इंतजार में कि मैं उस के पास आऊं और अलविदा कहूं…………. लेकिन मुझे अलविदा कहने का भी मौका नहीं मिला………….. मैं निशी को देख सकता था उसकी ख़ामोशी को समझ सकता था लेकिन कुछ कर नहीं सकता था………….

सुना ही था अब महसूस भी कर लिया की जिंदगी के बाद भी एक जिंदगी है……….