Tuesday, April 26, 2011

"नया मेहमान"

शेखर मुझे लगता है मैं फिर से माँ बनने वाली हूँ................. मनु की बात सुन शेखर स्तभ्द सा रह गया। कुछ क्षण सोचने के बाद वह बोला, "तुम मजाक तो नहीं कर रही हो ना" ????? नहीं, आई ऍम नौट जोकिंग...... क्या हम इसके लिए तैयार हैं? ये सवाल शेखर के दिमाग में कौंध रहा था। जब शेखर और मनु का बेटा दो साल था तब वो अक्सर सोचते थे कि जब भी वे दोनों दूसरे बच्चे को पालने लायक हो जायेंगे तो कोशिश करेंगे कि एक बच्ची को गोद लेंगे। शायद येही वजह थी जो शेखर को सोचने पर मजबूर कर रही थी। "क्या मैं अबोर्सन करा लूं"?, मनु ने कहा .............. नहीं कभी नहीं शायद यही ईएश्वर की मर्जी है, कहकर शेखर मनु की ओर बड़ा और मनु को गले से लगा लिया।
दिन बीतने लगे, घर में सभी को नए मेहमान के आने का इंतज़ार था। सभी काफी खुश थे और होते भी क्यूँ नहीं, बच्चों और बूढों के आने पर हर कोई खुश होता है........... आखिर वो दिन आ ही गया.......... मनु को सोनपुर के जिला चिकित्सालय में भारती करा दिया गया। एक रात रुकने के बाद मनु को आप्रेसन के लिए तैयार किया गया, शेखर के दो मित्र जिनका खून मनु के खून से मिलता था वहां पहुच चुके थे............... आप्रेसन शुरू हुआ और बाहर शेखर अपने मित्रों तथा परिजनों के साथ खड़ा ईएश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि उसे एक प्यारी सी बिटिया मिले.............. शेखर और बीरू में शर्त भी लग गयी कि बेटी होगी तो स्पेशल पार्टी होगी.............. तभी नर्स बाहर आई और हस्ते हुए बोली ,"बधाई बेटा हुआ है",.............. ओऊ.......... क्या प्रभु फिर बेटा दे दिया............ कहते हुए शेखर ने अपने मित्र को गले लगाया, फिर अपने बड़े भाई को गले लगाया............... कुछ देर बाद मनु और नया मेहमान सल्य चिकित्सा कक्ष से बाहर आये............ छोटू तो पैदा होते ही आँखें खोल के सब को टुकुर टुकुर देखने लगा। मनु और शेखर बहुत खुश नज़र आ रहे थे......... कभी उसका नाम सोचते तो कभी उसे प्यार करते....... अब वो दो नहीं तीन नहीं चार हो गए थे। रात को मनु के साथ शेखर और उनका एक मित्र साथ में रुका करता था । खूब हसी मजाक चलती नए नए नाम सोचे जाते और बड़े बड़े सपने देखे जाते........
चौथे दिन सुबह से ही बच्चे को थोड़ी परेशानी सी महसूस हो रही थी तो शेखर छोटू को लेकर डाक्टर साब के पास ले गया लेकिन डाक्टर साब ने सब कुछ नॉरमल बताके वापस भेज दिया। जैसे जैसे दिन गुजरता गया नए मेहमान कि हालत और बिगडती गयी, लेकिन डाक्टर साब तब भी सब कुछ हलके में ही ले रहे थे। जब बात हद से गुजर गयी तो शेखर बच्चे को लेकर अपनी माँ भाई और दो मित्रों के साथ सोनपुर से चालीस किलोमीटर दूर बड़े शहर को रवाना हो गया। शेखर बार बार अपने बच्चे को देखता और ईएश्वर से प्रार्थना करता जा रहा था। कुछ दूर पहुँचने के बाद अचानक शेखर की माँ बोली ,"बच्चे के हाथ पैर इतने ठन्डे हो गए हैं, मुझे लगता है इसमें कुछ नहीं बचा है" लेकिन शेखर कुछ मानने को तैयार ही नही था............. शहर पहुच के बड़े अस्पताल में बच्चे को दिखाया गया........... वहां के डाक्टरों ने काफी कोशिश की बचाने की लेकिन बचा नहीं पाए............. अब शेखर हार चूका था, उसका गला भर आया और वो अपने मृत बच्चे को गले से लगाये फूट फूट के रोने लगा............ लेकिन नए मेहमान का साथ तो उनकी जिंदगी में सिर्फ नौ महीने चार दिन का ही लिखा था।
वो सब वापस सोनपुर के लिए रवाना हो गए और मनु को नए मेहमान का आखरी दीदार करा के उस तृप्त आत्मा को अलविदा किया। मनु और शेखर को अस्पताल का वो कमरा बार बार नए मेहमान की याद दिला रहा था, दोनों के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे........... फर्क सिर्फ इतना था मनु के आंसू सबको दिख रहे थे और शेखर के नहीं................. आँखों में नीद तो थी नहीं बस रात भर मस्तिस्क इधर उधर डोल रहा था। शेखर अपनी सोच में ईएश्वर से प्रार्थना कर रहा था कि काश उन्हें कोई ऐसा गरीब परिवार मिल जाये जिन्हें जुड़वाँ बच्चियां हुई हों और वो एक बच्ची उन्हें गोद दे दें।
समय बीतता गया और मनु को अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। घर आई लेकिन घर घर सा नहीं रहा............. दिन रात उदासी और आंसू बस यही रह गया था।
दो हफ्ते गुजरने के बाद शेखर मनु को पट्टियां बदलने के लिए शहर के अस्पताल ले गाया । जब मनु की पट्टियां बदली जा रही थी तभी दो महिलाएं आपस में किसी बच्चे को गोद लेने की बात कर रही थीं। मनु से नहीं रहा गया और उसने उन महिलाओं से साड़ी जानकारी ली और अगले ही दिन शेखर और मनु बताये हुए पते में चले गए........... एक गरीब लेकिन इमानदार परिवार। और परिवार में एक बूढी माँ, बेटा बहु , एक पोता और दो प्यारी सी नन्ही सी पोतियाँ.............. शेखर हिचकिचाते हुए बोला, " हमने सुना है आप अपनी जुड़वाँ बेटियों में से एक को गोद देना छह रहे हैं"? सुनकर परिवार वाले भी सकपकाए लेकिन फिर अन्दर बैठा पानी पिलाया और शेखर मनु के घर तथा घर वालों के बारे में पूछने लगे। वो गरीब जरूर थे लेकिन अपनी बच्ची को किसी के भी हाथों में नहीं देना चाहते थे, वे चाहते थे की उनकी बच्ची एक अच्छे परिवार में जाये................ कुछ दिनों के बाद बात करने को कह के मनु और शेखर वहां से वापस हो लिए।
अब एक और इंतज़ार शुरू हो गया था, कई सवाल इन्हें हर वक़्त घेरे रहते थे। एक उम्मीद सी जगी थी जिसने मनु और शेखर को वापस उत्साहित कर रखा था.....
कुछ दिन इसी उत्साह में बीत गए, और फिर एक सुबह फ़ोन की घंटी बजी और उधर से सिर्फ इतनी आवाज़ आई , "नमस्कार आप कल आके बच्ची को ले जाना" । ये सब्द सुनते ही शेखर के हाथों से फोन गिर गया और ऑंखें नम हो गयीं............... कुछ पल के सन्नाटे बे बाद शेखर चिल्लाया, " कल हमारी बेटी आ रही है"। सब लोग ख़ुशी से झूम उठे और मनु तो मनो गगन में उड़ रही हो..............
अगले ही दिन मनु शेखर और माँ अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा वरदान लेने जा रहे थे............ वहां पहुंचके मनु ने बच्ची को अपने सीने से लगा लिया, शेखर के फ़ोन में बार बार घंटी बज रही थी, घर पे सारे लोग इंतज़ार कर रहे थे कि कब बच्ची घर आये...............
और वो क्षण आ ही गया शेखर, मनु और बिटिया...........................
शेखर और मनु के लिए वो सिर्फ बेटी ही नहीं साक्षात् माँ दुर्गा का रूप था.............
आज लगभग ६ वर्ष बाद भी शेखर और मनु के जीवन में वो "नया मेहमान" अलविदा कह के भी साथ बना हुआ है....................

Wednesday, April 20, 2011


२१ अप्रैल २००१ की सुबह अनु को कुछ परेशानी सी महसूस होने लगी................. हम अनु को लेकर श्री राम हॉस्पिटल पहुँच गए। वहां डॉ क्रिष्णा साह ने उसे देखते ही भर्ती करने के लिए कह दिया। सारा दिन अस्पताल और उसके इर्द गिर्द ही बीता............. रात आठ बजे के करीब डाक्टर साब ने बोला ऑपरेशन करना पड़ेगा क्यूंकि बच्चे की पल्स हलकी हो रही है। हमारे पास कोई चारा नहीं था और जहाँ जहाँ मुझसे हस्ताक्षर करवाने थे करवा लिए.......... अनु भी डरी हुई थी , सब घबरा रहे थे। मैं मन ही मन गायत्री का जाप कर रहा था और फिर मैंने अनु को महाराजजी का स्मरण कराया और पल भर में कुछ वार्ड बॉय उसे सल्य चिकित्सा कक्ष में ले गए.............. मैं पापा बनने जा रहा था। भीतर ऑपरेशन चल रहा था और बाहर सभी के मस्तिष्क में अलग अलग बातिएँ कौंध रही थी। सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता था........... शायद ईजा ईएश्वर से प्रार्थना कर रही होगी, "हे प्रभु मुझे एक पोता दे दो" , हमारी एक रिश्तेदार साथ में बैठी थी और शायद वोह सोच रही होंगी कि प्रभु इनके घर कन्या को ही जन्म देना...........बेटा मत देना.............. शायद बाबूजी भी सोच रहे हों कि पोता आये, और वो अपनी बहु के लिए निरंतर ईएश्वर से दुआएं मांग रहे होंगे............... सबकी अपनी अपनी सोच लेकिन मैं इन सब चीजों से बेखबर गायत्री का जाप करने में लगा हुआ था............... मैं ईएश्वर से येही दुआ मांग रहा था कि मेरी पत्नी और जिस बच्चे को वह जन्म दे दोनों स्वस्थ हों................ मेरे दिल कि सुन्येगा तो मैं चाह रहा था कि एक प्यारी सी बिटिया जन्म ले और उसका नाम हम हर्शिनी रखें। अनु भी यही चाहती थी............... मैं इधर से उधर चलने में लगा था और जैसे जैसे समय बीतता जा रहा था धड़कने और तेज़ होती जा रही थीं...........
तभी सन्नाटे को चीरती हुई एक नवजात बच्चे की रोने की आवाज आई................. अब ये तो तय था मैं बाप बन गया हूँ................ जैसे परीक्षा में पास होने के बाद एक लालसा बनी रहती है कि कौन सी डिविजन मिली है वैसा ही कुछ यहाँ भी हो रहा था............. लड़का या लड़की?................. कुछ क्षण बाद नर्से बहार आई और बोली, "मिठाई मंगाओ, बेटा हुआ है" ..................... और अनु??????? मेरे मुंह से निकला............. नर्स बोली पेसंट भी ठीक है दोनों स्वस्थ हैं..... मैंने ईएश्वर को धन्यवाद किया और फिर शर्म से इधर उधर देकने लगा............. ईजा ने मुझे बधाई दी, फिर दर्शन ,आंटी और बाकी लोगों ने भी............... ईजा ने मुझसे फोन करके सबको बताने के लिए कहा, लेकिन मैं अनु का इंतज़ार करता रहा............... थोड़ी देर में एक नर्स बच्चे को गोद में लिए हमारे पास आई और मैंने बब्बा को पहली बार देखा......... उसकी गोल गोल प्यारी आँखों ने मेरी पूरी दुनिया ही बदल दी।उसको प्यार करके मैंने अनु को देखा, वह अर्ध चेतनावस्था में थी मैंने उसके माथे में चूमा और फिर बाहर फ़ोन करने के लिए चला गया। चूँकि उस वक़्त मोबाइल फ़ोन का चलन शुरू ही हुआ था तो उसका इस्तेमाल बहुत महंगा पड़ता था......... मेरे पास तब मोबाइल फोन नहीं था। इसलिए मैं एसटीडी में गया और पहला फ़ोन घर बाबूजी को किया........... शरमाते हुए मैंने कहा, वो ऑपरेशन हो गया है और वो ...... बे ......ला.... ला........ बेटा हुआ है............... बाबूजी काफी खुश हुए फिर दीदी ने कहा बधाई तू पापा बन गया है............... मैं उस से पहले कभी बाप नहीं बना था न इसलिए शर्म आ रही थी.............. फिर मैंने भाई को बताया........ फिर बारी आई विक्की कि और गिरीश की.................. उसके बाद फिर बाकि लोग...........
अब बारी आई नाम की तो सब परेशां................... क्यूंकि हमने तो सारे नाम लड़कियों के सोचे थे.......... तब में "गिलानी गिफ्ट्स'" से एक नामों की किताब लेकर आया.............. उसमे कई नाम थे, कुछ साधारण कुछ असाधारण, कुछ छोटे कुछ बड़े कुछ नए कुछ पुराने................ लेकिन मेरे को सबसे अच्छा "एकलव्य" ही लगा और वो सब को पसंद आया.....................
कुछ ही क्षणों में एकलव्य १० वर्ष का हो जायेगा................ मैं प्यार से उसे बब्बा कह कर बुलाता हूँ............. आज "एकलव्य" के दसवे जन्मदिन पर मैं ईएश्वर से प्रार्थना करता हूँ, "हे ईएश्वर एकलव्य को आशीर्वाद दें कि वो सब का सम्मान करे, दयालु बने, स्वस्थ रहे, सभी को खुश रखे , बड़ा इंसान बने (दिल से), म्रदुभाशी हो और हमेशा सच बोले"....................

Saturday, April 16, 2011

शेरदा............. शेरदा मामा.............. शेरदा ताव्जी .................... इन्ही नामों से पुकारा गया है उन्हें। मैं जब बच्चा था तब से शेरदा मामा को देख रहा हूँ। कई लोग पूछते हैं आखिर ये हैं कौन? आप हैं शेर सिंह जी......... कालाढूंगी के पास किसी गाँव में रहते थे आप........... पत्नी बच्चे और भाई बहेन सभी का साथ था............ भाई ने किसी की हत्या करी और फस गए शेरदा मामा.............. जेल, थाना और किमचल प्रदेश में एक बाबा की तरह जिंदगी बितायी है आपने...... सच्चाई सामने आई और आप बैज्जत बरी हो गए............ लेकिन रिश्ते टूटते चले गए............ पत्नी बेटे भाई ...........सब दूर होते गए........... याद है जब नाना जी की ठेकेदारी अच्छी चलती थी तब शेरदा मामा उनका काम देखा करते थे, एक मुंशी की तरह........... समय बीता और समय के साथ ही हम सब बच्चे बड़े होकर अलग अलग जगह चले गए............. हल्द्वानी से नैनीताल आये पढाई पूरी की और नौकरी लग गई............ शादी हो गई बच्चे हो गए................ बच्चे बड़े होने लगे और अब जरूरत थी किसी के साथ की.......... तभी एक दिन अकस्मात् शेरदा मामा हमारे गौलापार स्थित फार्म हाउस में प्रकट हो पड़े............ सालों बाद उन्हें देखा था लेकिन मैंने पहचान लिया........... वो हमारे साथ ही रहने लगे.......... जब एकलव्य तीन वर्ष का हुया तो हम नैनीताल आ गए ............ जिंदगी ठीक थक चलती रही......... लेकिन स्मैरा के आने के बाद हमें थोड़ी तकलीफ होने लगी............... लेकिन उसके स्कूल जाने तक महाराजजी ने शेरदा मामा को हमारे पास नैनीताल भेज दिया............. तब से मामा यहीं पर हैं......... आज वो पुरे पडोस के मामा हैं........... मेरे सारे मित्र उन्हें मामा कह के ही पुकारते हैं........... अब वो हमारे घर के ही सदस्य हैं............. हां कभी कभी उनकी आँखों में आंशू जरूर देखे हैं मैंने.......... अब हमारा परिवार ही उनका परिवार है........... उनके यहाँ होने से हमें काफी तसल्ली होती है की घर में कोई बुजुर्ग हैं............. साल में चार बार से ज्यादा नहीं नहाते हैं मामा.........अक्टूबर से अप्रैल तक शेर्हा मामा मामा कम और एस्किमो ज्यादा लगते हैं............... उम्र भी होई है........ मेरी साडे चार साल की बेटी उन्हें अपना स्टुडेंट बना कर पडाती है................ हम अगर देर से घर पहुंचे तो मामा नाराज हो जाते हैं............. शेरदा मामा महान हैं....................हम ईश्वर को धन्यवाद करते हैं कि हमें शेरदा मामा का साथ मिला................

Thursday, April 14, 2011

नमस्कार................... आज काफी समय के बाद "दिल से" कुछ लिख रहा हूँ। मैंने सुना है महत्वकांशी होना बुरी बात नहीं है, हाँ अति महत्वकांशी होना ठीक नहीं........ मैं भी इसी दौड़ में शामिल हूँ । हाँ मैं महत्वकांशी हूँ............. कई बार लगता है कि क्या मै सही कर रहा हूँ? क्या अपनी महत्वकान्शाओं को पूरा करने के लिए जी हजूरी करना जरूरी है? चापलूसी करना ............... बेवजह तारीफ करना............ शोशे बाजी करना ............... हवा बनाना ......... या फिर सिर्फ मेहनत के बलबूते पर आगे बढना???????????????
मुझे लगता है सिर्फ किताबी बातों से ही आगे नहीं बड़ा जा सकता है। शायद हर कदम पे दिल और दिमाग को चुस्त रखने कि जरूरत है। अपनी बातों में अपनी सोच में एक लचीलापन लाना होगा............. ये लचीलापन अगर न हो तो जिंदगी नटवरलाल कि तरह हो जाएगी.............
क्या अपनी महत्वकंसाओं को पूरा करने में अगर किसी की जी हजूरी या चापलूसी करनी पड़ी तो
कुछ गलत है? हाँ हमारे व्यहार से किसी को कष्ट न पहुंचे ना हि हम किसी के लिए बुरा सोचें........ अगर आप का बॉस आपको दो दुनी पांच बता रहा हो, तो मै समझता हूँ उसे मानने में कोई हर्ज़ नहीं है अगर किसी का नुक्सान न हो रहा हो तो...............
इन सब के बीच अपने दिल को जरूर खुला रखें ताकि आप से कोई गलती न हो जाये..................... दिमाग गलत सोच सकता है ........... लेकिन........... दिल गलत नहीं कर सकता है............ तो अपनी महत्वाकान्साओं को पूरा करने के लिए सोचें "दिल से"...............